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लेखक:

देवेन्द्र सफल

जन्म : 4 जनवरी, 1958, कानपुर नगर
पिता : स्मृतिशेष पं. लक्ष्मी नारायण शुक्ल
माता : स्मृतिशेष अलकनंदा देवी शुक्ला
शिक्षा : स्नातक
सम्मान/पुरस्कार :
श्रृंगवेरपुर क्षेत्र विकास संस्थान,  इलाहाबाद (1995)
अनमोल साहित्यिक संस्था, कानपुर (1997)
आचार्य पं. गोरेलाल त्रिपाठी स्मृति निधि सम्मान (1998)
हिन्दी प्रचारिणी समिति, कानपुर की ‘प्राज्ञ शेखर’ सम्मान पूर्व राज्यपाल उ.प्र. डा. वी. सत्यनारायण रेड्डी द्वारा (2000)
मानस संगम, कानपुर ‘सारस्वत सम्मान’ (2008)
मानस परिषद, कानपुर ‘विशिष्ट साहित्यकार सम्मान’ (2008)
कायाकल्प ‘साहित्य श्री’ सम्मान, नोएडा, उ.प्र. (2010)
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, दिल्ली, ‘सारस्वत सम्मान’ (2010)
साहित्यिक संस्था अक्षरा, मुरादाबाद, ‘सारस्वत सम्मान’ (2011)
उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, सम्मान पत्र (2011)
स्व. राम किशन दास स्मृति साहित्य सम्मान, काठमाण्डू, नेपाल (2013)
स्व. मदन मोहन सिंह स्मृति हिन्दी शिखर सम्मान, दुबई, यू ए ई (2014)
एनालको युनिर्विर्सटी, पेरिस-फ्रांस से विष्व हिन्दी सेवी-सम्मान (2016)
उत्तर प्रदेश वस्त्र प्रौद्योगिकी संस्थान,कानपुर  सम्मान पत्र (2018)
साहित्यिक यात्रायें :
काठमाण्डो, दुबई, शारजाह, अबूधाबी, पेरिस-फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्विटजरलैण्ड, वैटिकन सिटी

प्रकाशित कृतियाँ  :
पखेरू गंध के (गीत-संग्रह) 1998
नवान्तर (नवगीत-संग्रह) 2007
लेख लिखे माटी ने (नवगीत-संग्रह) 2010
सहमी हुई सदी (नवगीत-संग्रह) 2012
हरापन बाकी है (नवगीत-संग्रह) 2016 
शीशे के मकां में (गजल-संग्रह) 2021
प्रकाशनाधीन :
दोहा-संग्रह, नवगीत-संग्रह, परछाइयाँ हमारी (गजल-संग्रह)
विशेष :
आकाशवाणी के मान्य कवि, स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में गीतों का निरन्तर प्रकाशन
स्थायी पता :
117/क्यू/759-ए, शारदा नगर, कानपुर-208025 (उ.प्र.) 
मो. 9451424233, 9005222266

नवान्तर

देवेन्द्र सफल

मूल्य: Rs. 125

गीत-कविता का नवान्तरण

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पखेरू गंध के

देवेन्द्र सफल

मूल्य: Rs. 125

गीत संग्रह

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परछाइयाँ हमारी

देवेन्द्र सफल

मूल्य: Rs. 300

शफल की ग़ज़लें

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लेख लिखे माटी ने

देवेन्द्र सफल

मूल्य: Rs. 150

देवेन्द्र सफल का गीत-संग्रह

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शीशे के मकां में

देवेन्द्र सफल

मूल्य: Rs. 300

सफल की ग़ज़लें

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सहमी हुई सदी

देवेन्द्र सफल

मूल्य: Rs. 300

सफल के नवगीत

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हरापन बाकी है

देवेन्द्र सफल

मूल्य: Rs. 250

श्री सफल चाहे 'आपबीती' कहें या 'जगबीती' लिखें, लोक-संपृक्ति उनकी विशिष्ट पहचान बनी रहती है

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